हिंदी सिनेमा में तंत्रवाद्यों का योगदान
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https://doi.org/10.71126/nijms.v1i2.14Keywords:
भारतीय सिनेमा, फिल्मी संगीत, तंत्र वाद्य, पारंपरिक एवं आधुनिक संगीत, सरोद और सितारAbstract
भारतीय सिनेमा, कला और संस्कृति का अद्भुत मेल है, जिसकी शुरुआत 1913 में दादा साहब फाल्के की फिल्म "राजा हरिश्चंद्र" से हुई। भारतीय फिल्मों का सबसे खास हिस्सा उनका संगीत है, जो न केवल मनोरंजन करता है बल्कि दर्शकों को भावनात्मक रूप से जोड़ने में भी मदद करता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत, जैसे हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत, ने फिल्मी गानों की नींव रखी और इन्हें गहराई और अलग पहचान दी। फिल्मी संगीत में तंत्र वाद्यों, जैसे सितार, सरोद, सारंगी, संतूर और गिटार का बड़ा योगदान है। इन वाद्यों ने न केवल गानों को खूबसूरत बनाया, बल्कि फिल्मों की भावनाओं को भी उभारा। "मुगल-ए-आज़म", "पाकीज़ा" और "कश्मीर की कली" जैसी फिल्मों में इन वाद्यों का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ। सारंगी और सरोद जैसे वाद्यों ने प्रेम, उदासी और आध्यात्मिकता जैसी भावनाओं को गहराई से व्यक्त किया। वहीं, संतूर का उपयोग पारंपरिक और पहाड़ी धुनों में किया गया, जिससे फिल्मों में भारतीयता झलकी। तंत्र वाद्य सिर्फ गानों में ही नहीं, बल्कि बैकग्राउंड संगीत में भी अहम भूमिका निभाते हैं। इनके इस्तेमाल से दृश्यों की भावनात्मक गहराई बढ़ती है। उदाहरण के लिए, रोमांटिक और भावुक दृश्यों में सितार और सारंगी की ध्वनि दर्शकों पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। इन वाद्यों की खासियत यह है कि ये भारतीय फिल्मों की सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करते हैं। तंत्र वाद्य हमारी परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं, और इनका इस्तेमाल फिल्मों को और भी खास बनाता है।
इस प्रकार, तंत्र वाद्य भारतीय सिनेमा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इन्होंने सिर्फ संगीत को समृद्ध नहीं किया, बल्कि फिल्मों की कहानी और भावनाओं को भी गहराई दी है। तंत्र वाद्यों के बिना भारतीय सिनेमा अधूरा लगता है। ये वाद्य दर्शकों को गानों और दृश्यों से जोड़ने में मदद करते हैं और भारतीय सिनेमा को एक खास पहचान देते हैं।
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